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कविता

तीस की उम्र में जीवन

कुमार अनुपम


मेरे बाल गिर रहे हैं और ख्वाहिशें भी

फिर भी कार के साँवले शीशों में देख

उन्हें सँवार लेता हूँ

आँखों तले उम्र और समय का झुटपुटा घिर आया है

लेकिन सफर का भरोसा

कायम है मेरे कदमों और दृष्टि पर अभी

दूर से परख लेता हूँ खूबसूरती

और कृतज्ञता से जरा-सा कलेजा

अर्पित कर देता हूँ गुपचुप

नैवेद्य की तरह उनके अतिकरीब

नींदें कम होने लगी हैं रातों कr बनिस्बत

किंतु ऑफिस जाने की कोशिशें सुबह

अकसर सफल हो ही जाती हैं

कोयल अब भी कहीं पुकारती है...कुक्कू... तो

घरेलू नाम...‘गुल्लू’...के भ्रम से चौंक चौंक जाता हूँ बारबार

प्रथम प्रेम और बाँसुरी न साध पाने की एक हूक-सी

उठती है अब भी

जबकि जीवन की मारामारी के बावजूद

सरगम भर गुंजाइश तो बनाई ही जा सकती थी, खैर

धूप-पगी खानीबबूल का स्वाद मेरी जिह्वा पर

है सुरक्षित

और सड़क पर पड़े लेड और केले-छिलके को

हटाने की तत्परता भी

किंतु खटती हुई माँ है, बहन है सयानी, भाई छोटे और बेरोजगार

सद्यःप्रसवा बीवी है और कठिन वक्तों के घर-संसार

की जल्दबाज उम्मीदें वैसे मोहलत तो कम देती हैं

ऐसी विसंगत खुराफातों की जिन्हें करता हूँ अनिवार्यतः

हालाँकि आत्मीय दुखों और सुखों में से

कुछ में ही शरीक होने का विकल्प

बमुश्किल चुनना पड़ता है मन मार घर से रहकर इत्ती दूर

छटपटाता हूँ

कविता लिखने से पूर्व और बाद में भी

कई जानलेवा खूबसूरतियाँ

मुझे पसंद करती हैं

मेरी होशियारी और पापों के बावजूद

अभी मर तो नहीं सकता संपूर्ण


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